14 साल पुराना उत्तराखंड भाषा संस्थान, मुख्यालय के बिना और अस्थायी व्यवस्था के साथ आगे बढ़ने में रहा विफल
उत्तराखंड में स्थानीय बोली, भाषा को बढ़ावा देने के नाम पर 14 साल पहले बना भाषा संस्थान खुद का उत्थान नहीं कर पा रहा है। वर्षों बाद भी मुख्यालय का अता-पता नहीं है। संस्थान के एक्ट में इसका मुख्यालय देहरादून में बनाने का जिक्र है।
वहीं, त्रिवेंद्र सरकार में इसको ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण में बनाए जाने की घोषणा की गई, लेकिन अब तक न अस्थायी राजधानी देहरादून, न ही ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण में इसका अपना मुख्यालय वजूद में आ पाया।
उत्तराखंड भाषा संस्थान की स्थापना वर्ष 2010 में की गई। इसके बाद वर्ष 2018 में इसका एक्ट बना, लेकिन शुरुआत से ही संस्थान का अपना मुख्यालय नहीं है। संस्थान स्थापना के बाद से ही अस्थायी भवन और अस्थायी कर्मियों के भरोसे चल रहा है। वर्ष 2020 में त्रिवेंद्र सरकार में गैरसैंण में संस्थान के मुख्यालय की घोषणा के बाद भूमि के लिए सरकार ने 50 लाख की व्यवस्था की।
उस दौरान कहा गया कि गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाया गया है। भाषा संस्थान के मुख्यालय के बाद वहां कई संस्थानों की स्थापना की प्रक्रिया शुरू होगी। गैरसैंण में उत्तराखंड भाषा संस्थान की स्थापना की घोषणा भी इसी दिशा में बढ़ाया गया कदम है। तत्कालीन सीएम की घोषणा के बाद बताया गया कि इसके लिए संस्थान के एक्ट में बदलाव के बाद गैरसैंण में भाषा संस्थान का मुख्यालय बनेगा, लेकिन संस्थान की स्थापना के 14 साल बाद इसके मुख्यालय के लिए दून में भूमि की तलाश की जा रही है।
संस्थान के अधिकारियों का कहना है कि संस्थान के एक्ट में संशोधन नहीं किया गया। एक्ट में मुख्यालय देहरादून में होने का जिक्र है। ऐसे में देहरादून के सहस्त्रधारा रोड में इसके लिए भूमि का चयन किया गया है। हालांकि, भूमि अभी भाषा संस्थान के नाम पर हस्तांतरित नहीं हुई।
देश के कई विवि में गढ़वाली, कुमाऊंनी भाषा व साहित्य पर कई पीएचडी शोध ग्रंथ लिखे जा चुके हैं। वर्ष 1913 में गढ़वाली भाषा का प्रथम समाचार पत्र गढ़वाली समाचार प्रकाशित हुआ। इसके अलावा भी इसकी कई साहित्यिक पृष्ठभूमि है। लेकिन राज्य गठन के 24 साल बाद भी अपनी बोली-भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं हुए।
उत्तराखंड भाषा संस्थान के तहत गठित हिंदी, उर्दू, पंजाबी और लोक भाषा व बोली अकादमियों का उद्देश्य हिंदी, उर्दू, पंजाबी व लोक भाषा और बोलियों का विकास करना है, लेकिन संस्थान शुरुआत से ही अस्थायी कर्मचारियों के भरोसे चल रहा है।