उत्तराखंड में फलों का संकट: सेब, आड़ू, नाशपाती गायब होने लगे, ग्लोबल वार्मिंग से वैज्ञानिक चिंतित

देहरादून। उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों से अब सेब, आड़ू, आलूबुखारा व नाशपाती जैसे प्रमुख फल गायब होने लगे हैं। वैज्ञानिक इस गिरावट के पीछे ग्लोबल वार्मिंग व बदलते मौसम चक्र को जिम्मेदार भी मान रहे हैं। बर्फबारी में कमी, सर्दियों की गर्माहट व बेमौसम बारिश से फलों की पैदावार बुरी तरह प्रभावित भी हो रही है।
बुरांश के समय से पहले खिलने से पहले ही वैज्ञानिकों में चिंता की लहर थी, लेकिन अब फल उत्पादन के आंकड़ों ने इस चिंता को और गहरा भी कर दिया है। पर्वतीय क्षेत्रों में वृक्षरेखा हर वर्ष ऊंचाई की ओर खिसकती जा रही है, जिससे बुग्यालों व पारंपरिक फसल क्षेत्रों का अस्तित्व खतरे में भी पड़ गया है।
सेब की खेती पर सबसे बड़ा असर
क्लाइमेट सेंट्रल की रिपोर्ट के अनुसार, 2016-17 में उत्तराखंड में सेब का उत्पादन 25,201 हेक्टेयर क्षेत्र में होता था, जो 2022-23 में घटकर 11,327 हेक्टेयर रह गया—यह 55 प्रतिशत की गिरावट है। उत्पादन में भी 30 फीसदी की कमी दर्ज भी की गई है। नींबू की विभिन्न प्रजातियों में 58 फीसदी की गिरावट भी आई है।
डॉ. रश्मि चमोली, एग्रोफॉरेस्ट्री विशेषज्ञ, बताती हैं कि सेब को सर्दियों के दौरान 1200 से 1600 घंटे तक सात डिग्री सेल्सियस से नीचे के तापमान की आवश्यकता भी होती है, लेकिन बर्फबारी की कमी के कारण यह चिलिंग पीरियड पूरा नहीं हो रहा, जिससे सेब की गुणवत्ता व उत्पादन दोनों पर असर पड़ रहा है।
अल्मोड़ा में 84% और चमोली में 53% तक की गिरावट
- अल्मोड़ा में फलों का उत्पादन 84 प्रतिशत तक गिर गया है, जो राज्य में सबसे अधिक है।
- चमोली में बागवानी क्षेत्र में सिर्फ 13 फीसदी की कमी आई, लेकिन उत्पादन में 53 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई।
- दूसरी ओर, उत्तरकाशी और रुद्रप्रयाग में बागवानी क्षेत्र घटने के बावजूद उत्पादन में आंशिक वृद्धि देखी गई है।
गर्म होती सर्दियों ने बिगाड़ा संतुलन
1970 से 2022 के बीच उत्तराखंड का औसत तापमान 1.5°C तक बढ़ भी चुका है। यही कारण है कि उत्तरकाशी, चमोली, पिथौरागढ़ व रुद्रप्रयाग जैसे जिलों में बर्फ से ढके क्षेत्र सिकुड़ कर 90 से 100 वर्ग किमी तक घट चुके हैं।
डॉ. अकित कुमार टम्टा, असिस्टेंट प्रोफेसर, भरसार विश्वविद्यालय, का कहना है कि “हर्षिल, मोरी, जोशीमठ व नीती घाटी जैसे क्षेत्रों में पहले सेब की बेहतर पैदावार होती थी, लेकिन कीट प्रकोप व बीमारियों जैसे वूली एप्पल एफिड, एप्पल स्कैब और पाउडरी मिल्डू ने अब इन फसलों को नुकसान पहुंचाना भी शुरू कर दिया है।”
भविष्य में और बिगड़ सकते हैं हालात
इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट की रिपोर्ट के अनुसार, पूर्वी हिमालय में विशेष रूप से सर्दियों और वसंत के दौरान तापमान तेजी से बढ़ भी रहा है, जिससे वृक्षों की प्राकृतिक रेखा ऊपर की ओर खिसक रही है। पौधे तेजी से गर्म तापमान के अनुसार खुद को ढाल नहीं पा रहे, और न ही ऊंचाई की ओर पर्याप्त गति से फैल पा रहे हैं। इससे भविष्य में कई प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा भी मंडरा रहा है।
क्या करना होगा आगे?
विशेषज्ञों का कहना है कि यदि तत्काल प्रभावी नीति व स्थानीय स्तर पर जलवायु अनुकूल कृषि के उपाय नहीं अपनाए गए, तो उत्तराखंड के पारंपरिक फल व वनस्पतियां भविष्य में इतिहास भी बन सकती हैं।